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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युगगीता - भाग 1

युगगीता - भाग 1

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4317
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है युग गीता का पहला भाग...

Yuggita (1)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

गीता पर न जाने कितने भाष्य लिखे जा चुके। गीता दैनन्दिन जीवन के लिए एक ऐसी पाठ्य पुस्तिका है, जिसे जितनी बार पढ़ा जाता है, कुछ नए अर्थ समझ में आते हैं। परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीरामशर्मा आचार्य जी ने जीवन भर इस गीता को हर श्वास में जिया है। जैसे-जैसे उनके समीप आने का इस अकिंचन को अवसर मिला, उसे लगा मानो योगेश्वर कृष्ण स्वयं उसके सामने विद्यामान हैं। गीता संजीवनी विद्या की मार्गदर्शिका है एवं एक महाकाव्य भी। परम पूज्य गुरुदेव के समय-समय पर कहे गए अमृत वचनों तथा उनकी लेखनी से निस्सृत प्राणचेतना के साथ जब गीता के तत्त्वदर्शन को मिलाते हैं, तो एक निराले आनन्द की अनुभूति होती है—पढ़ने वाले पाठक को, सुनने वाले श्रोता को। उस आनंद की स्थिति में पहुँचकर अनुभूति के शिखर पर रचा गया है, यह ग्रंथ ‘युगगीता’।

मन्वन्तर-कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म-तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है—यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी—अमृतवाणी सभी हर शब्द-वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित-परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है।

युग-गीता के प्रस्तुत प्रतिपादन को, जिसे प्रथम खण्ड के रूप में परिजन पढ़ रहे हैं। यह शान्तिकुञ्ज के सभागार में निवेदक द्वारा कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन—‘सेवाधर्म के कर्मयोग का समावेश-दैनन्दिन जीवन में अध्यात्म का शिक्षण’ प्रस्तुत करने के लिये व्याख्यानमाला के रूप में नवम्बर 1998 से दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक सप्ताह के दो उद्बोधनों के रूप में प्रस्तुत किया गया था। उनके कैसेट अब उपलब्ध हैं। लिखते समय इसे जब ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में (मई 1999 से) देना आरंभ किया, तो कई परिवर्तन किये गये उद्धरणों को विस्तार से दिया गया तथा उनकी प्रामाणिकता हेतु कई ग्रन्थों का पुनः अध्ययन किया गया। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका के विगत कई वर्षों के कई अंक पलटे गये एवं समय-समय पर उनके दिये गए निर्देशों से भरी डायरियाँ भी देखी गयीं। जो कभी बोलने में रह गयी थीं—या अधूरापन सा उस प्रतिपादन में रह गया था, उसे लेखन में पूरा करने का एक छोटा सा प्रयास मात्र हुआ है।

‘‘गीता विश्वकोष’’ परम पूज्य गुरुदेव के स्वप्नों का ग्रंथ है। उसके लिए बहुत कुछ प्रारंभिक निर्देश भी दिए गये हैं। वह जब बनकर तैयार होगा, तो निश्चित ही एक अनुपम ग्रंथ होगा उसकी पूर्व भूमिका के रूप में युग गीता को खण्ड-खण्ड में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है; ताकि विश्वकोष की पृष्ठभूमि बन सके। इस विश्वकोष में दुनिया भर के संदर्भ, भाष्यों के हवाले तथा विभिन्न महामानवों के मंतव्य होंगे। वह सूर्य होगा-युगगीता तो उसकी एक किरण मात्र है। युगों-युगों से गीता गायी जाती रही है—लाखों व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेते रहे हैं, किंतु इस युग में जबकि बड़े स्तर पर एक व्यापक परिवर्तन सारे समाज, सारे विश्व में होने जा रहा है—इस युगगीता का विशेष महत्त्व है। कितने खण्डों में यह ग्रंथ प्रकाशित होगा, हम अभी बता नहीं सकते। चौथा अध्याय आते-आते मात्र बीस श्लोक की व्याख्या में नौ लेख लिख दिए गए हैं। लगता है अभी नौ और लिखेंगे तब पूरा होगा।

कल्पना की जा सकती है कि कितना विशद ज्ञान का भंडार है, यह गीतामृत।
इस ग्रंथ से जन-जन को ज्ञान का प्रकाश मिले, इस युग परिवर्तन की वेला में जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं—यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है—यह उद्देश्य रहा है। इसमें लेखक के अपने ज्ञान-विद्वता का कोई योगदान नहीं है। यह सबकुछ उसी गुरुसत्ता के श्रीमुख से निस्सृत महाज्ञान है, जो उनकी लेखनी से निकल पड़ा या उद्बोधन में प्रकट हुआ। गुरुवर की अनुकम्पा न होती, अग्रजों का अनुग्रह न होता, सुधी पाठकों की प्यार भरी प्रतिक्रियाएं न होतीं, तो शायद यह ग्रंथ आकार न ले पाता। उसी गुरुसत्ता के चरणों में श्रद्धापूरित भाव से इस गीताज्ञान की व्याख्या रूपी युगगीता का प्रथम खण्ड प्रस्तुत है।


-डॉ. प्रणव पण्ड्या

गीता-माहात्म्य



श्रीमद्भागवद्गीता के विषय में जो माहात्म्यपरक वंदना आती है, वहीं से इसका शुभारंभ होता है। भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायान व्यास के मुख से निकला स्तुति का वाक्य है—


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।


अर्थात् ‘‘जिसका गायन किया जा सके, ऐसा सुन्दर काव्य है गीता। इसके गायन व मनन करने के बाद हमें अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की क्या आवश्यकता है। यह तो स्वयं पद्मनाभ भगवान् विष्णु के मुखारबिंदु से निकली है, ऐसे में इसका माहात्म्य जितना बताया जाए, कम है।’’ जब हम पद को समझने का प्रयास सकते हैं, तो ज्ञात होता है कि मात्र गीता का पाठ नहीं अर्थ एवं भावसहित उसे अंतःकरण में धारण कर लेना-मनन करना है। गीता एक दर्शन है, जीवन संजीवनी है। इसे जितनी बार पढ़ा जाता है। एक नया जीवन जीने का सूत्र हाथ लगता है।

अतः इसे पौराणिक ढंग से मात्र श्लोकों के पाठ तक सीमित न रख इसे भगवान् की वाणी समझते हुए आत्मसात करने का प्रयास किया जाना चाहिए, यह दैनंदिन जीवन में कार्य करने की शैली में अभिव्यक्त होना चाहिए, तभी गीता पाठ का महत्त्व है। इसी श्रीमद्भागवद्गीता माहात्म्य प्रकरण में आगे आता है—‘‘सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदनः। पार्थो वत्सः शुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।’’ अर्थात् समस्त उपनिषद् गायों के समान हैं। उन गौमाताओं को दुहने का कार्य भगवान् कृष्ण-गोपालनंदन ने किया है। पार्थ अर्जुन (पृथा के पुत्र होने के नाते) बछड़े के समान इस ज्ञानरूपी दुग्धामृत को पीने वाले के रूप में इसमें विद्यमान हैं। सारे उपनिषदों का निचोड़ गीता में है। योगिराज के रूप में स्वयं भगवान ने उस अमृत को इस काव्य के अठारह अध्यायों के सात सौ श्लोकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यही इस ग्रन्थ के अति महत्त्वपूर्ण एवं वैशिष्ट्य पूर्ण स्थान का परिचायक है।

अदालत में शपथ ली जाती है तो गीता की। इस कारण कि गीता को हिन्दूधर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ माना गया है। मुस्लिम कुरान की, ईसाई बाईबिल का शपथ लेते हैं। सभी ज्ञानीजनों ने मिलकर गीता को ही हिंदूधर्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ मानकर कहा कि कसम गीता की ली जानी चाहिए। इसी से इस ग्रन्थ के माहात्म्य का परिचय मिलता है। वेदों-उपनिषदों सबका सार-निचोड़ यदि कहीं एक स्थान पर है, तो वह गीता में है। प्रस्थान त्रयी के अंतर्गत ब्रह्मसूत्रों उपनिषदों के बाद श्रीमद्भागवद्गीता को लिया गया है। तीनों ही ग्रंथ भारतीय अध्यात्म के आधारभूत ग्रंथ है इस पथ पर आरुढ़ होने वाले के लिए विशेष स्थान रखते हैं।

भगवान् कृष्ण के रूप में एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास के रूप में चौबीस अवतारों में से दो अवतार द्वापर युग में हुए। दोनों ही गीता से जुड़े हुए हैं। श्रीकृष्ण ने गीता कही-श्री व्यास ने उसे काव्यात्मक रूप दिया उसे लिखा। दोनों ही विष्णु के अवतार हैं। श्री व्यास जी द्वारा महाभारत ग्रंथ भी लिखा गया है, जिसका एक अंग गीता को माना जाता है। माहाभारत में अठारह पर्व हैं, जिनमें पूर्वार्ध में 6 पर्व है एवं उत्तरार्ध में बारह पर्व। कितना साम्य है-परिस्थितियों के इस वर्णन में सात अक्षौहणी सेना एक तरफ थी, ग्यारह अक्षौहणी सेना दूसरी तरफ एवं दोनों के बीच महासमर का महाकाव्य है महाभारत। इसी में कही गयी है गीता। ऋषि-मुनियों ने जितना कुछ तत्त्वज्ञान दिया है, आरण्यकों-गिरिगुहा-कंदराओं में दिए हैं, किंतु गीता जैसा तत्त्वज्ञान युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के बीच खड़े होकर दिया गया है।

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